Thursday, December 3, 2009

...कुछ और था

जो आग थी सीने में,उसका नाम कुछ और था
कल तक उनकी निगाहों का,पैगाम कुछ और था

दुखता था कभी ये दिल,तो सम्हाल लेते थे वो
दर्द भूल जाने का वो इन्तेजाम कुछ और था

सितम भी आसां बन जाते थे,पहलु में उनके
उस दामन की खुशबू का निजाम कुछ और था

मुकम्मल होता सफर,जो तेरे दर तक आ जाते
पोहचे मगर जहा तक वो मकाम कुछ और था

क्या से क्या हो गया है तेरे अफ़साने का 'ठाकुर'
जो सोचा था तुने वो शायद अंजाम कुछ और था

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