Wednesday, September 17, 2014

...लगा है कोई

शहर-ऐ-दिल में आ कर बसने लगा है कोई
क्यों मेरे ख्वाबो में अक्सर रुकने लगा है कोई 

ढूंढ रही थी उम्रभर मेरी बेताबियाँ जिसको
खुद ही आ कर धड़कनो में छुपने लगा है कोई

खामोशियो का भी गम नहीं मुझ दीवाने को
आखो से आकर बात जब करने लगा है कोई

सुकू पाता है मीठे जख्मो से ये दिल-ऐ-नाजुक 
तीर-ऐ-हुस्न ले कर जब चुभने लगा है कोई

आ के ज़रा देख तो सनम अपनी दहलीज़ पर 
के तेरी इबादत की खातिर झुकने लगा है कोई 

यु न छुप सकेगी अब ये आतिश-ऐ-दिल 'ठाकुर'
धुवाँ सा तेरे सीने से आखिर उठने लगा है कोई 













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