Tuesday, January 18, 2011

और कही देखा ही नहीं

उनसे पहले दिल अपना इस तरह कही लगा ही नहीं
देखा जो एक बार उनको फिर और कही देखा ही नहीं

वो तसव्वुर वो अहसास वो बेखुदी आये है जिंदगी में
कैसे कहूँ मेरी खातिर यह जमाना अब बदला ही नहीं

संग-ए-दर-ए-यार से वाबस्ता अपने सजदे हो गये है
मैं तो उठा मुरव्वत से,मगर दिल मेरा उठा ही नहीं

उनकी उल्फत में ता-आसमाँ पोह्ची है ख्वाहिशे अपनी
जमी पे जैसे कदमो को हमने कभी रखा ही नहीं

लाख छुपाये रखा तुमने"ठाकुर" तस्वीर-ए-हुस्न-ए-यार को  
शीशा-ए-दिल से मगर अक्स उनका कभी छुपा ही नहीं  

शजर

नफरत की आग में क्यों किसी का घर जलाये बैठे हो
क्या है खबर तुम्हे किसी का मुक़द्दर जलाये बैठे हो
जिंदगी की धुप में तुम कोई साया अब पाओगे कैसे 
खुद ही अपने ताल्लुक का तुम  शजर जलाये बैठे हो

शजर...पेड़/Tree

Monday, January 17, 2011

कमजर्फी

अपनीही मस्ती में चूर,लोगो की कमज़र्फी क्या कहे
गम-ए-गैर पे हसने वाले,ज़माने की हमदर्दी क्या कहे
मतलब की खातिर दर-ए-हरम पे, अपना सर झुकानेवाले
इंसा तो क्या,खुदा से भी इनकी,खुदगर्ज़ी क्या कहे  

कमज़र्फ --कोत्या मनाचा