Tuesday, November 10, 2009

...क्यों होने लगा

तेरा खयाल और ये इज्तराब क्यों होने लगा
छुपाया हुवा वो दर्द बे-नकाब क्यों होने लगा

है इल्म-ऐ-वजूद मुझको आसमाँ के चाँद का
फ़िर ख्वाब में वो रुख माहताब क्यों होने लगा

महफिल में और भी है यहाँ दिल को लुभानेवाले
मेरी नजरो को तेरा इन्तेख्वाब क्यों होने लगा

यु तो अपनी ही धुन में जीते रहे हम आजतक
अपनी हस्ती पे कोई कामयाब क्यों होने लगा

तू लाख करे इन्कार इस छुपी उल्फत का 'ठाकुर'
रातो का आलम फ़िर बेख्वाब क्यों होने लगा

इज्तेराब-बेचैनी,इन्तेख्वाब-चुनाव
बेख्वाबी-नींद न आना

1 comment:

aalochakji ka otla said...

Gazale achhi lagi lekin meter pe thoda or dhyan den. aap meri kavitaen bhi padh sakte hain. swagat hai. anand m.p.