Sunday, October 4, 2009

अनचाही जिंदगी

दो बूंद चैन की नही मिलती,दुनिया के मैखाने में
किन किन गलियों से गुजर चुका हूँ,मैं अन्जाने में

गैरो से शिकवा कैसा,दुसरो से शिकायत कैसी
आख़िर अपने ही लगे है जब,मुझको मिटाने में

जिनकी खातिर गुजरी है,अब तक ये मेरी जिंदगी
झिझक क्यों होती है उन्हे,अब मेरा साथ निभाने में

कैसे बस पायेगी ये बस्तिया,अपने अरमानो की
तकदीर ख़ुद रहती है मसरूफ,इनको जलाने में

इतना उब चुका है 'ठाकुर' दुनिया की तंगदिली से
तुम भी देर क्यों करते हो खुदा,मुझे यहाँ से उठाने में

1 comment:

आमीन said...

बहुत ही गजब लिखा है सर आपने.. थैंक्स... वाकई लाजवाब

http://dunalee.blogspot.com/