Thursday, August 27, 2009

मेरे नाम का नही

गुलिस्ता है ये जहाँ,मगर कोई गुल मेरे नाम का नही
मुझसे है दुनिया को वास्ता,पर कोई मेरे काम का नही

लम्हा लम्हा मिलके बनती है ज़ंजीर-ऐ-वक्त यहाँ
एक लम्हा भी अपनी ज़िंदगी में आराम का नही

चढ़ते आफताब को सलाम करना,जाने ये ज़माना

मगर मैं जानू इतना,के कोई ढलती शाम का नही

नजर आया दूर से ही,कोई चराग-ऐ-नूर अफ़्शा वहाँ
पोहचे नज़दीक तो जाना,ये नूर मेरे मकाम का नही

मैखाने होकर आए 'ठाकुर' फ़िर भी गमगीन ही रहे
क्या जाने,अब वो पहलेसा असर,किसी जाम का नही

नूर अफ़्शा -प्रकाश फैलानेवाला